सिस्टम ठीक हो यह महज संयोग भी हो सकता है कि जोरशोर से चल रही दाखिला प्रक्रिया के दौरान फसली अवकाश घोषित कर दिया गया है। यानी 9 से 18 अप्रैल तक सरकारी स्कूलों में छुट्टी रहेगी, बच्चे पठन-पाठन से दूर रहेंगे और खेतीबाड़ी में घर वालों का हाथ बटाएंगे। हालांकि यह छुट्टी पहली बार नहीं की गई है, इसके बावजूद इस बार का फसली अवकाश बहस का विषय बन रहा है। अनुमान है कि अप्रैल के प्रथम सप्ताह में ही सरकारी स्कूलों में दाखिले का औसत 5 से 15 प्रतिशत तक रहा है, जबकि अधिकतर निजी स्कूलों में यह 25 से 50 प्रतिशत तक पहुंच गया है। प्रतिष्ठित बड़े स्कूलों में तो यह 70 से 80 फीसद तक है। सवाल उठता है कि सभी को शिक्षा का अधिकार उपलब्ध कराने का दावा कर रही सरकार दाखिले को लेकर स्वयं कितनी तैयार है। तमाम कोशिश के बावजूद निजी स्कूल उसकी पकड़ में नहीं आ रहे। शिक्षा अधिनियम की धारा 134 ए को लेकर ही राज्य के निजी स्कूलों ने जो हंगामा काटा वह किसी से छिपा नहीं है। झज्जर, करनाल, पानीपत, अंबाला, हिसार हो या कोई और जिला, बीते
महीनों ने इन स्कूलों ने सरकार के आदेश के खिलाफ आंदोलन ही छेड़ दिया था। सड़क पर धरना-प्रदर्शन हुए, मांग-पत्र सौंपे गए यहां तक कि कई दिनों तक स्कूल बंद रखे गए। दूसरी तरफ सरकारी तंत्र शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के लिए पूरी कसरत करता रहा, जो अब भी जारी है। लेकिन सिवाय स्कूलों को कानून का डंडा दिखाने के बात आगे बढ़ती नहीं दिख रही है। सबसे बड़ी समस्या गरीब बच्चों के प्रवेश की है। स्वाभाविक है ज्यादा से ज्यादा बच्चों को सरकारी स्कूलों तक लाया जाए, जो बचें उन्हें निजी स्कूल स्थान दें। मगर यहां तो स्थिति ही उलट है। सरकारी स्कूल में कोई जाना नहीं चाहता और निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना सभी के सामर्थ्य में नहीं है। इसका लाभ गली-कस्बों में खुले वे स्कूल उठा रहे हैं जो बच्चों का भाग्य बनाते कम बिगाड़ते ज्यादा हैं। उनके यहां न तो योग्य व प्रशिक्षित शिक्षक हैं और न ही पाठन-पाठन की दूसरी स्तरीय सुविधाएं। कितना अच्छा होता सरकार अपने संसाधनों का इस्तेमाल स्कूलों को मजबूत करने में करती। ताकि गरीब ही नहीं, सक्षम लोग भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते और निजी स्कूलों से मदद की उम्मीद ही नहीं करनी पड़ती।
महीनों ने इन स्कूलों ने सरकार के आदेश के खिलाफ आंदोलन ही छेड़ दिया था। सड़क पर धरना-प्रदर्शन हुए, मांग-पत्र सौंपे गए यहां तक कि कई दिनों तक स्कूल बंद रखे गए। दूसरी तरफ सरकारी तंत्र शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के लिए पूरी कसरत करता रहा, जो अब भी जारी है। लेकिन सिवाय स्कूलों को कानून का डंडा दिखाने के बात आगे बढ़ती नहीं दिख रही है। सबसे बड़ी समस्या गरीब बच्चों के प्रवेश की है। स्वाभाविक है ज्यादा से ज्यादा बच्चों को सरकारी स्कूलों तक लाया जाए, जो बचें उन्हें निजी स्कूल स्थान दें। मगर यहां तो स्थिति ही उलट है। सरकारी स्कूल में कोई जाना नहीं चाहता और निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना सभी के सामर्थ्य में नहीं है। इसका लाभ गली-कस्बों में खुले वे स्कूल उठा रहे हैं जो बच्चों का भाग्य बनाते कम बिगाड़ते ज्यादा हैं। उनके यहां न तो योग्य व प्रशिक्षित शिक्षक हैं और न ही पाठन-पाठन की दूसरी स्तरीय सुविधाएं। कितना अच्छा होता सरकार अपने संसाधनों का इस्तेमाल स्कूलों को मजबूत करने में करती। ताकि गरीब ही नहीं, सक्षम लोग भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजते और निजी स्कूलों से मदद की उम्मीद ही नहीं करनी पड़ती।
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