उनमें यह भाव तब है जब निर्धन तबकों के 25 फीसदी छात्रों की पढ़ाई का खर्च वहन करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को उठानी है। शिक्षा अधिकार कानून की सफलता के लिए जैसे सहयोग की आवश्यकता निजी स्कूलों से है वैसी ही राज्य सरकारों से भी है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस कानून पर अमल के मामले में ज्यादातर राज्य सरकारों का रवैया बहुत उत्साहजनक नहीं है। इसकी पुष्टि इससे होती है कि इस कानून को लागू हुए दो वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी कई राज्यों ने इस संदर्भ में अधिसूचना जारी करने की जहमत नहीं उठाई है। इससे यही पता चलता है कि वे अपने बुनियादी सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के प्रति सचेत और सक्रिय नहीं। हालांकि केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री की ओर से यह कहा जा चुका है कि शिक्षा अधिकार कानून के अमल में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी, लेकिन तथ्य यह है कि राज्य सरकारें स्कूलों की दशा सुधारने के लिए अपेक्षित कदम उठाने से इंकार कर रही हैं। विभिन्न Fोतों से यह बात सामने आ रही है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। स्थिति यह है कि ग्रामीण इलाकों में तनिक भी सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं कर रहे हैं। वे करें भी क्यों जब खुद सरकारी सर्वेक्षण यह बता रहे हों कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य जोड़-घटाना करने और यहां तक कि अपना नाम लिखने में भी सक्षम नहीं हैं। शिक्षा अधिकार कानून को लेकर उच्चतम न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है, लेकिन राज्य सरकारों के ढुलमुल रवैये के चलते यह आशंका बनी हुई है कि कहीं वे निजी स्कूलों के भरोसे न हो जाएं। यदि ऐसा होता है तो शिक्षा अधिकार कानून को सफलतापूर्वक लागू करना और वंचित वर्गो के जीवन में सुधार लाने का उद्देश्य पूरा करना टेढ़ी खीर ही साबित होगा।
Friday, April 13, 2012
EDUCATIONAL ADITORIALS
उनमें यह भाव तब है जब निर्धन तबकों के 25 फीसदी छात्रों की पढ़ाई का खर्च वहन करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को उठानी है। शिक्षा अधिकार कानून की सफलता के लिए जैसे सहयोग की आवश्यकता निजी स्कूलों से है वैसी ही राज्य सरकारों से भी है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस कानून पर अमल के मामले में ज्यादातर राज्य सरकारों का रवैया बहुत उत्साहजनक नहीं है। इसकी पुष्टि इससे होती है कि इस कानून को लागू हुए दो वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी कई राज्यों ने इस संदर्भ में अधिसूचना जारी करने की जहमत नहीं उठाई है। इससे यही पता चलता है कि वे अपने बुनियादी सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के प्रति सचेत और सक्रिय नहीं। हालांकि केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री की ओर से यह कहा जा चुका है कि शिक्षा अधिकार कानून के अमल में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी, लेकिन तथ्य यह है कि राज्य सरकारें स्कूलों की दशा सुधारने के लिए अपेक्षित कदम उठाने से इंकार कर रही हैं। विभिन्न Fोतों से यह बात सामने आ रही है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। स्थिति यह है कि ग्रामीण इलाकों में तनिक भी सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं कर रहे हैं। वे करें भी क्यों जब खुद सरकारी सर्वेक्षण यह बता रहे हों कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य जोड़-घटाना करने और यहां तक कि अपना नाम लिखने में भी सक्षम नहीं हैं। शिक्षा अधिकार कानून को लेकर उच्चतम न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है, लेकिन राज्य सरकारों के ढुलमुल रवैये के चलते यह आशंका बनी हुई है कि कहीं वे निजी स्कूलों के भरोसे न हो जाएं। यदि ऐसा होता है तो शिक्षा अधिकार कानून को सफलतापूर्वक लागू करना और वंचित वर्गो के जीवन में सुधार लाने का उद्देश्य पूरा करना टेढ़ी खीर ही साबित होगा।
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