Friday, April 13, 2012

EDUCATIONAL ADITORIALS


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SHIKSHA KA ABHIYAN:-उच्चतम न्यायालय ने शिक्षा अधिकार कानून को संवैधानिक रूप से वैध करार देते हुए जिस तरह सभी सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत स्थान निर्धन वर्गो के छात्रों को देने के प्रावधान को उपयुक्त माना उसके बाद सभी को सबको शिक्षित करने के इस राष्ट्रीय अभियान को सफल बनाने में जुटना चाहिए। ऐसी किसी प्रतिबद्धता के बगैर शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षित करने और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गो के जीवन स्तर में सुधार लाने के उद्देश्य को हासिल कर पाना संभव नहीं होगा। यह अच्छा नहीं हुआ कि 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का कानून बनाने में आवश्यकता से अधिक देरी इसके बावजूद हुई कि इसका संकल्प संविधान अंगीकार करते समय लिया गया था। यह भी अच्छा नहीं हुआ कि इस कानून को चुनौती दी गई। यह तो राष्ट्र निर्माण का माध्यम है। इसे सभी को सहर्ष स्वीकार करने के साथ उसमें अपना योगदान भी देना चाहिए था। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने गैरसहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक स्कूलों को शिक्षा अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने का फैसला किया है, लेकिन बेहतर होता कि राष्ट्र निर्माण के इस यज्ञ में वे भी अपनी आहुति देते। यह शुभ संकेत नहीं कि निजी स्कूलों के कुछ संगठन उच्चतम न्यायालय के फैसले से संतुष्ट नहीं और वे इस शिक्षा अधिकार कानून को अपने लिए बोझ मान रहे हैं।

उनमें यह भाव तब है जब निर्धन तबकों के 25 फीसदी छात्रों की पढ़ाई का खर्च वहन करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को उठानी है। शिक्षा अधिकार कानून की सफलता के लिए जैसे सहयोग की आवश्यकता निजी स्कूलों से है वैसी ही राज्य सरकारों से भी है। इस संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि इस कानून पर अमल के मामले में ज्यादातर राज्य सरकारों का रवैया बहुत उत्साहजनक नहीं है। इसकी पुष्टि इससे होती है कि इस कानून को लागू हुए दो वर्ष हो चुके हैं, लेकिन अभी कई राज्यों ने इस संदर्भ में अधिसूचना जारी करने की जहमत नहीं उठाई है। इससे यही पता चलता है कि वे अपने बुनियादी सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के प्रति सचेत और सक्रिय नहीं। हालांकि केंद्र सरकार और खुद प्रधानमंत्री की ओर से यह कहा जा चुका है कि शिक्षा अधिकार कानून के अमल में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी, लेकिन तथ्य यह है कि राज्य सरकारें स्कूलों की दशा सुधारने के लिए अपेक्षित कदम उठाने से इंकार कर रही हैं। विभिन्न Fोतों से यह बात सामने आ रही है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। स्थिति यह है कि ग्रामीण इलाकों में तनिक भी सक्षम व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं कर रहे हैं। वे करें भी क्यों जब खुद सरकारी सर्वेक्षण यह बता रहे हों कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य जोड़-घटाना करने और यहां तक कि अपना नाम लिखने में भी सक्षम नहीं हैं। शिक्षा अधिकार कानून को लेकर उच्चतम न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है, लेकिन राज्य सरकारों के ढुलमुल रवैये के चलते यह आशंका बनी हुई है कि कहीं वे निजी स्कूलों के भरोसे न हो जाएं। यदि ऐसा होता है तो शिक्षा अधिकार कानून को सफलतापूर्वक लागू करना और वंचित वर्गो के जीवन में सुधार लाने का उद्देश्य पूरा करना टेढ़ी खीर ही साबित होगा।

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