Wednesday, July 4, 2012

उच्च शिक्षा की पेचीदा गुत्थी

मानव संसाधन विकास मंत्रालय, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और आईआईटी सरीखे संस्थानों के बीच छिडऩेवाली जंग और तर्क-वितर्क के हम अर्से से साक्षी रहे हैं और शहरी ही नहीं, ग्रामीण इलाकों में भी काम लायक यातायात परिवहन तंत्र तथा बिजली-पानी वितरण की घटिया व्यवस्था पर जनशिकायतों या सुदीर्घ संपादकीय विलाप के भी। हमारे यहां अंग्रेजों के जमाने के बने कई सार्वजनिक संसाधन आज भी हमारे छोटे शहरों में नए सार्वजनिक निर्माण कार्यों की तुलना में अधिक कालजयी साबित हो रहे हैं, जबकि नेता लोगों द्वारा धूमधाम से जनता को समर्पित किए गए सरकारी शिक्षण या स्वास्थ्य के नये केंद्र अक्सर गेंदे की सजावटी मालाएं सूखने तक भद्दी टुटहा इमारतों, बदबूदार अस्वास्थ्यकर परिसरों और बिजली-पानी की कतई नाकारा फिटिंग्स का पर्याय बन चुके होते हैं। क्या बड़े-बड़े संस्थानों में पढ़े हमारे देसी विशेषज्ञ और अभियंता देश की जरूरतों व व्यावहारिक दृष्टि से कारगर जन संसाधनों के निर्माण के बाबत दो सदी पहले सात समंदर पार से आए अंग्रेजों से भी कम जानते हैं? क्या आजादी के छह दशकों बाद उच्चशिक्षा प्राप्त डॉक्टरों, इंजीनियरों और मैनेजरों को जनता अपने पूर्ववर्तियों से इतनी कम महत्वपूर्ण नजर आती है कि वे सार्वजनिक क्षेत्र से बड़ी तादाद में हट रहे हैं? जो बचे हैं, वे भी गैरप्रोफेशनल परिस्थितियों में तब तक काम करते हैं, जब तक मरीज के परिजन या छात्र उन पर हाथ न उठा दें। वे जब हड़ताल पर उतारू हो कामकाज ठप्प कर दें, तो व्यवस्था जागती है, लेकिन तमाम हो-हल्ले के बाद कोई थानेदार आकर जांच के आदेश दे देता है और उम्मीद की जाती है कि यह प्रतीकात्मक कार्रवाई काफी होगी।

मैगजीन 'द लैंसेट' ने जब गए साल भारतीय हस्पतालों में बेकाबू जैव संक्रमणों का हवाला देकर इलाज को भारत आने वाले विदेशी मरीजों को आगाह किया और रेटिंग एजेंसियों ने हमको पिछड़ती व्यवस्था कहा, तो आसमान सिर पर उठा लिया गया। अब उसी पत्रिका ने भारत के युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति को युवा मौतों का सबसे बड़ा कारण करार दिया है तो फिर बावेला मच रहा है, जबकि हम जानते हैं कि देश में आमजन के इलाज की दशा क्या है और यह भी कि हमारे अधिकतर परिसरों में अंग्रेजी न जानने वाले युवा अवसादग्रस्त हैं, क्योंकि बिना सही सामाजिक पृष्ठभूमि के वे उन्नत तकनीकी से चलने वाले औद्योगिक संस्थानों में काम नहीं पाते और लीक से हटकर नया करने के लिए जरूरी जनसंपर्क करना उनको नहीं आता। इतनी संगीन शिकायतों-चेतावनियों के बाद भी क्या अचरज की बात नहीं है कि हमारी जरूरतों और परिस्थितियों को आधार बनाकर इंजीनियरिंग या डॉक्टरी की शिक्षा प्रणाली और परिसरों में आवश्यक सुधारों के बाबत कोई गंभीर शोध नहीं हो रहा है। सारी लड़ाई बस दाखिलों पर सिमटी हुई है।

दाखिला पाने का असली लक्ष्य? हर बरस जब इंजीनियरिंग और प्रबंधन की दाखिला परीक्षाओं के नतीजे आने पर उसके टॉपर्स के जो सपने और उम्मीदें मीडिया बड़े भक्तिभाव से सामने लाता है, उनसे तो लगता है हमारे यहां दाखिले के लिए इतना खून-पसीना और रुपया बस इसीलिए बहाया जाता है कि इंजीनियरी या डॉक्टरी पढ़कर भी ये छात्र डॉक्टर-इंजीनियर नहीं, मोटी तनख्वाह देने वाली बिजनेस मैनेजरी या आईएएस परीक्षा पास कर कुर्सीधारी अफसर बनें। ऊंचे ज्ञान को लेकर हमारी कुर्सीपरस्ती आज भी उस राजर्षि वाली धारणा से जुड़ी है, जो ज्ञान को हुनरमंदी नहीं, कुर्सी या मंच से आदेश देने की ताकत का स्रोत मानता है। कुर्सीसीमित ज्ञान के चलते ही हमारे हर सरकारी संस्थान में कीमती उपकरणों के दैनिक रखरखाव में घपलेबाजी और बेहाली दिखना अनिवार्य है।

उच्चतम सरकारी दफ्तरों में पान की पीक से रंगी सीढिय़ां, टेढ़े बेमेल पल्लों वाले खिड़की-दरवाजे, गंदे सार्वजनिक बाथरूमों में बुरी तरह चूते पाइप व नल, शॉर्ट सर्किट की चिंगारी छोडऩे वाले बिजली उपकरण हैं। कुशलतम चिकित्सकों वाले सरकारी हस्पतालों में तैनात सीनियर सरकारी डॉक्टर जटिलतम अवयव प्रत्यारोपण कर सकते हैं, रोबोटिक सर्जरी और नवीनतम उपकरणों के प्रयोग में अपना सानी नहीं रखते, पर वे भी बिजली-पानी की कमी और सरकारी चतुर्थ श्रेणी परिचारकों का रोना रोते लाचार नजर आते हैं। दफ्तरी राजनीति के कारण शल्यक्रिया कक्ष या सघन चिकित्सा कक्षों में डॉक्टरी उपकरणों, सर्जिकल परिधानों के स्टेरेलाइजेशन, शौचालयों और जीवन रक्षक मशीनों के रखरखाव का स्तर यह हो गया है कि कई बड़े चिकित्सा संस्थान मरीजों के परिजनों को कहते हैं कि उनका मरीज संक्रमित परिसर में नया रोग पकड़ ले, इससे पहले वे उसे घर ले जएं।

अफसरी पद पा चुके इंजीनियरों की फौज के चलते सिविल इंजीनियरी का काम हमारे यहां स्वशिक्षित मैकेनिक संभाल चुके हैं। मैकेनिक का मतलब है गांव से शहर आकर बसे पारंपरिक हस्तकौशल में पले परिवारों के सामाजिक ड्रॉपआउट्स के समुदाय का कोई हुनरमंद सिपाही, जो वाहन रिपेयर करता है, नल की चूड़ी-वॉशर बिठा जाता है, एम-सील लगाकर छतों की टपकन रोक देता है, सिंटेक्स की टंकी का स्टॉप कॉर्क हटा या लगा सकता है और पंखों-एयरकंडीशनर या फ्रिज की लीक हुई गैस भरने के अलावा कई मुहल्लों में मीटर की रफ्तार को गैरकानूनी ढंग से 'सेट' कर बिजली-पानी के बिल को सहनीय स्तर पर ला देता है। छोटे शहरों-कस्बों में, झुग्गी इलाकों में बिजली पानी की उपलब्धि कराना पंचायत या म्युनिसिपैलिटी के हाथों नहीं, इन मैकेनिकों या उन बाबुओं-चौकीदारों के ग्रीस लगे हाथों में है, जो सप्लाई स्विच ऑन-ऑफ करने को तैनात हैं। हाथ चिकने करो, मनचाहा फल पाओ।

दरअसल हम जो भी कहें, भारत में इंजीनियरी या डॉक्टरी उस मायने में अप्लाइड विज्ञान नहीं हैं कि इंग्लैंड या अमरीका से आयातित एक उम्दा-सा टेम्प्लेट बहराइच से पलामू या पालघाट तक कारगर हो जाए।

दरअसल विज्ञान के जमीनी अवतरण के पीछे कीमती उपकरणों के बजाय स्थानीय परंपराओं व सामूहिक अनुभवों में पले मनुष्यों की शृंखला का महत्व ज्यादा होता है। डॉक्टर से सफाई कर्मचारी और इंजीनियर से चपरासी तक फैली इन टीमों की सफलता जितनी वैज्ञानिक उपकरणों या फॉर्मूलों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है, उससे कहीं अधिक इस बात पर कि काम करते समय टीम के बीच संवाद और परस्पर भरोसे तथा अपने हिस्से के काम के प्रति आस्था का स्तर कैसा है। जिस टीम का शीर्ष तबका अपनी टीम के निचले भाग से सामाजिक तौर से दूर एक ऊंची कुर्सी पर आसीन हो और नेतृत्व अपनी ही टीम में निचली पायदान पर खड़े कर्मियों की भाषा में उनसे सीधे बात तक न करता हो, उसके हुकुम को कितना समझा और किस मनोभाव से बजाया जाएगा?

भारत

की उच्च शिक्षा प्रणाली अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी प्रणाली है।

भारत में उच्च शिक्षा की सर्वप्रमुख गवर्निंग बॉडी यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) है। 

0 comments

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.