Wednesday, April 11, 2012

सूचना की बाढ़ में ओझल ज्ञान (EDITORIAL)


सूचना की बाढ़ में ओझल ज्ञान 
आप सबने वह इश्तिहार देखा होगा, जिसमें कूची और रंगों का टिन उठाए शाहरुख खान छलांग भरते हुए एक बदनुमा, बदरंग शहर की दीवारों को पलक झपकते इंद्रधनुषी रंगों से सजा देते हैं। साथ-साथ चलता गाना कहता है, 'रंगों की दुनिया में आओ, रंगीन सपने सजाओ...।' और भले ही हम जानते हैं कि हमारे देश का बदनुमा चेहरा इतनी आसानी से नहीं बदला जा सकता, लेकिन ब्रांड की बिक्री तो बढ़ ही जाती है। विज्ञापनों की ही तरह हमारा टीवी मीडिया भी नई सूचना तकनीकी और शातिर बातों के धनी दिमागों की मदद से देश की जटिल समस्याओं को चुटकियों में समझकर कूची के एक वार से उन्हें मिटाने के रामबाण नुस्खे जनता को बेचने लगा है।

सार्वजनिक शिक्षा की चिंताजनक दुर्दशा का मसला ही लीजिए। मीडिया पर कितने रायबहादुर बेहतरी के फटाफट फॉर्मूले सुझा रहे हैं। कोई कहता है - बस एक नई शिक्षा नीति बननी चाहिए। कोई कहता है कि नहीं, पहले स्कूल परिसर में शौचालय। अन्य कहता है कि मुफ्त लैपटॉप दो, तो कोई वोकेशनल कोर्स पढ़ाए जाने के पक्ष में है। यह बात दब जाती है कि लागू होने के लिए इनमें से हर प्रस्तावित सुधार योजना पहले पूरे राज और समाज के ढांचे में व्याप्त उस भ्रष्टाचार और गैरबराबरी के खात्मे की मांग करेगी, जिस पर देश के मौजूदा शासक वर्गों का अस्तित्व टिका है। हिंदी के एक वरिष्ठ मीडियाकार ने देश में बदलाव लाने को लेकर एक संगोष्ठी में कहा कि भारतीय भाषाओं का समर्थन उनको नामंजूर है, क्योंकि उसके पीछे अंग्रेजी का विरोध है। हर भारतीय को अंग्रेजी सिखाने के लिए सरकारी स्कूलों में गरीबों के बच्चों को भी रोजगार और बेहतर भविष्य से जुड़ी इस ग्लोबल भाषा में क्यों न पढ़ाया जाए? 1789 के लगभग, 'गरीबों को डबलरोटी नहीं मिलती तो वे केक क्यों न खाएं?' कहकर फ्रांस की महारानी मारी आंतोनियेत ने भी कुछ ऐसी ही सलाह दी थी। पर देश के लिए खाने और खिलाने वालों को पहले यह जानना होगा कि हमारे सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को एक विषय के रूप में भी पढ़ा सकना व्यावहारिक रूप से क्यों असंभव है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ताजा रपट के अनुसार आज (मौजूदा पाठ्यक्रम में अंग्रेजी जोड़े बिना) भी हमारे सरकारी स्कूलों में प्रशिक्षित टीचरों की भारी कमी है। हर बच्चे को शिक्षाधिकार का वादा लागू कराने के लिए हमको 5 लाख अतिरिक्त शिक्षकों तथा माध्यमिक शिक्षा अभियान को लागू कराने के लिए 1.80 लाख शिक्षकों की जरूरत होगी। जिसके लिए पहले तो हमको देश के कुल (29 हजार) प्रशिक्षक शिक्षकों की मौजूदा तादाद ही (40 हजार तक) बढ़ानी होगी। इन भर्तियों में समय लगेगा, फिर प्राइमरी स्कूलों की पांच लाख रिक्तियां भरनी होंगी और तब समुचित शिक्षक प्रशिक्षण दिया जा सकेगा, जो कुछ माह तक चलेगा। लिहाजा दिल्ली में अंग्रेजी के ढोल हमें सुहाने भले लगें, लेकिन जब तक उसे बजाने वाले देश भर में उपलब्ध नहीं होते, बात नहीं बनेगी।

हाल में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र लगाने, कोयला या लोहा खदानों या स्पेक्ट्रम के आवंटन से लेकर सेनाप्रमुख और सेना के आचरण तक पर अहम राष्ट्रीय संस्थाओं, उनके नेतृत्व और प्रशासकीय मशीनरी पर संगीन सवाल उठाने वाली अनेक खबरें सामने आई हैं। मुद्दे की गंभीरता को बिना ठीक से समझे, उन पर भी इसी तरह के अफलातूनी फैसले दिए जा रहे हैं। हमारे लोकतंत्र में संस्थाओं, सरकारी नीतियों और नियामक कानूनों के गठन का एक लंबा इतिहास है। लेकिन तुरत फैसला सुनाने और सरकार पर दबाव बनाने को उतावला टीवी मीडिया और उसके विशेषज्ञ इन मुद्दों पर बहस को जटिल ब्योरों के बजाय सतही विश्लेषण व नाटकीय दोषारोपणों की ही तरफ ले जाते दिखते हैं। सूचनाधिकार के बावजूद देश के प्रशासनिक ढांचे और जटिल व दीर्घकालिक सार्वजनिक नीतियों के बाबत गहरी जानकारी रखने वाली दिमागी वयस्कता अभी हमारे औसत नवसाक्षर नागरिकों के बीच नहीं बनी है। लिहाजा यदि हर सनसनीखेज घटना सिर्फ (अक्सर लीक की गई) सूचनाओं के आधार पर बिना सत्यापन के चटपट देश के कोने-कोने तक प्रचारित की जाए, साथ ही दर्शकों से उस पर तुरंत राय भी मांगी जाने लगे तो निश्चय ही लाखों अज्ञानी (या अद्र्धज्ञानी) हाथ एसएमएस के मार्फत हर राष्ट्रीय मुद्दे पर अपना फैसला जारी करने को अकुला उठेंगे। यह दुखद है कि हमारा राष्ट्रीय मीडिया अपने विशेषज्ञों की सतही सलाहों और एसएमएस या ट्विटर के फैसलों को जनता की राय कहकर कई बार सही जानकारियों की विश्वसनीयता और ठोस बहस का आधार ही मिटा देता है। हाल में एक धैर्यहीन भीड़ को मीडिया प्रचार ने जनलोकपाल बिल के पक्ष में संसद पर एक विवादित बिल को बिना लंब बहस के दोनों सदनों से तुरत पारित कराने पर उतारू बना दिया। बहसों में उनको यह कहीं नहीं बताया गया कि हमारे संविधान के अनुसार कोई विधेयक इस तरह संसद की कनपटी पर तमंचा रखकर पास नहीं कराया जा सकता। हर बिल को कानून बनाने की एक समय-साध्य, जटिल प्रक्रिया है। संसद में जब यह स्पष्ट हुआ तो जनाक्रोश जिस तरह उमड़ा था, उसी तरह थम गया। लेकिन इस लंबे कटु घटनाक्रम की वजह से संसदीय काम की अपूरणीय क्षति हुई। इसी तरह हाल में सेना के बाबत कुछेक संदिग्ध-अपुष्ट जानकारियों वाली खबरें छपीं तो सरकार से सेना प्रमुख को पहले बेईमानी और फिर प्रोटोकॉल उल्लंघन का दोषी बताकर उनका सर भाले की नोंक पर रखकर मंगाने की जिद पकड़ ली गई। सरकार के कहने पर कि प्रधानमंत्री या रक्षामंत्री की नजर में उनका आचरण संदेहास्पद नहीं था और विवादित प्रोटोकॉल सरीखा कोई प्रावधान है ही नहीं, हवा का रुख फिर बदल गया और वही भीड़ सरकार से खबर लाने व उसे छापने वालों को दीवार में चुनवाने की मांग पर उतर आई। क्या कोई भी लोकतंत्र सूचनाओं की बाढ़ के बीच ज्ञानपूर्ण विवेक के साथ कामकाज निबटा सकेगा?

कहना पड़ेगा कि सूचना के ज्ञान बनने तक का फासला हमारे प्रतिरक्षाविदों से लेकर मान्य नीति विश्लेषकों तक ने आम जनता के बीच स्पष्ट नहीं किया है। हमारे विशेषज्ञ और बड़े मीडियाकार सरल आमफहम भाषा में गहन ज्ञान अपने देश के आम लोगों के लिए सहज-सुलभ नहीं बना सके हैं। ज्ञानियों के बीच अंतर्संवाद न होने से लोकतांत्रिक बारीकियों के बाबत नागरिकों और विधायिका के बीच भी रचनात्मक समझ न के बराबर बन सकी है। इस माहौल में खबरें तथ्यपरक व वैज्ञानिक के बजाय भावुक, चमत्कारप्रिय और प्रदर्शनवादी बन जाती हैं। फायदा चुनाव-दर-चुनाव लोक-लुभावन, लेकिन आधारहीन सपने बेचकर वोट समेटने वाली राजनीतिक पार्टियां, उनके दलाल और बाहुबली उठाते हैं, जनता की हालत जस की तस रहती है।

सूचना तकनीक

शब्द का उपयोग सबसे पहले वर्ष १९५८ में लीविट और व्हिसलर ने किया था।

'हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू' में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने नई तकनीक को सूचना तकनीक कहकर पुकारा था। 

0 comments

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.