निर्णय की अक्षमता कमजोर व पिछड़े परिवारों के बच्चों को शिक्षा प्रदान करने पर राज्य सरकार के प्रयासों में कभी कमी नहीं दिखाई दी पर इनका असर भी तो दिखाई देना चाहिए। अनिर्णय, अनिश्चय, नीतिगत विरोधाभास, समन्वय की कमजोरी या खास मौकों पर तत्परता की कमी के साथ कुछ अन्य कारण तमाम प्रयासों को दिशाहीन साबित कर देते हैं। विडंबना देखिए कि सरकार अभी तक आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की परिभाषा ही तय नहीं कर पाई। इसी कारण पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय को निर्देश देना पड़ा कि सालाना दो लाख या इससे कम आमदनी वाले परिवारों के बच्चे आर्थिक पिछड़ा वर्ग यानी ईडब्ल्यूएस के लिए मान्यता प्राप्त स्कूलों में आरक्षित 25 फीसद सीटों पर प्रवेश के हकदार होंगे। सरकार के सामने दो मुख्य दायित्व हैं जो एक साथ ही पूरे करने होंगे। शिक्षा का अधिकार कानून सख्ती से लागू करने के लिए हालांकि सरकार ने चालू
सत्र से ही गरीब परिवारों के बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने का संकल्प दोहराया है परंतु लगता है कि इस सत्र में 25 तो दूर, पांच प्रतिशत सीटों पर भी दाखिला दिलाना संभव नहीं है। कारण स्पष्ट है कि सत्र की शुरुआत में जितनी सक्रियता दिखाई जानी चाहिए थी, उतनी नहीं दिखी। निर्णय की अक्षमता का परिणाम यह हुआ कि निजी स्कूलों में सारी सीटें भर गई। शिक्षा विभाग ने सभी स्कूलों से सूची मांग कर ही अपने दायित्व की इतिश्री कर ली। इसी गति से काम चला तो लगता नहीं कि अगले सत्र में भी शिक्षा के अधिकार कानून का आरंभिक लक्ष्य भी पूरा हो पाएगा। रही बात उच्च न्यायालय के नवीनतम आदेश की, यद्यपि यह शिक्षा का अधिकार कानून से नहीं जुड़ा पर इसके पालन में भी राज्य सरकार को पसीने छूट सकते हैं क्योंकि शायद ही किसी मान्यता प्राप्त विद्यालय में एक भी सीट खाली हो, बल्कि इससे भी आगे की बात तो यह है कि सरकारी व निजी स्कूलों में ग्रीष्मावकाश या तो घोषित हो चुका है या इसी सप्ताह के अंत तक घोषित हो जाएगा। अदालत का फैसला ऐसे वक्त आया जब इसका वर्तमान सत्र में लाभ दिखाई देने की संभावना कम है। अदालत का स्पष्ट निर्देश है कि 25 प्रतिशत सीटों पर प्रवेश सीटों की उपलब्धता पर निर्भर करेगा। सरकार को चाहिए कि आर्थिक पिछड़े वर्ग की परिभाषा के साथ अपनी शिक्षा नीति को भी परिपक्व तौर पर अंतिम रूप दे ताकि नए सत्र में शिक्षा क्षेत्र की तस्वीर धुंधली न दिखाई दे।
सत्र से ही गरीब परिवारों के बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने का संकल्प दोहराया है परंतु लगता है कि इस सत्र में 25 तो दूर, पांच प्रतिशत सीटों पर भी दाखिला दिलाना संभव नहीं है। कारण स्पष्ट है कि सत्र की शुरुआत में जितनी सक्रियता दिखाई जानी चाहिए थी, उतनी नहीं दिखी। निर्णय की अक्षमता का परिणाम यह हुआ कि निजी स्कूलों में सारी सीटें भर गई। शिक्षा विभाग ने सभी स्कूलों से सूची मांग कर ही अपने दायित्व की इतिश्री कर ली। इसी गति से काम चला तो लगता नहीं कि अगले सत्र में भी शिक्षा के अधिकार कानून का आरंभिक लक्ष्य भी पूरा हो पाएगा। रही बात उच्च न्यायालय के नवीनतम आदेश की, यद्यपि यह शिक्षा का अधिकार कानून से नहीं जुड़ा पर इसके पालन में भी राज्य सरकार को पसीने छूट सकते हैं क्योंकि शायद ही किसी मान्यता प्राप्त विद्यालय में एक भी सीट खाली हो, बल्कि इससे भी आगे की बात तो यह है कि सरकारी व निजी स्कूलों में ग्रीष्मावकाश या तो घोषित हो चुका है या इसी सप्ताह के अंत तक घोषित हो जाएगा। अदालत का फैसला ऐसे वक्त आया जब इसका वर्तमान सत्र में लाभ दिखाई देने की संभावना कम है। अदालत का स्पष्ट निर्देश है कि 25 प्रतिशत सीटों पर प्रवेश सीटों की उपलब्धता पर निर्भर करेगा। सरकार को चाहिए कि आर्थिक पिछड़े वर्ग की परिभाषा के साथ अपनी शिक्षा नीति को भी परिपक्व तौर पर अंतिम रूप दे ताकि नए सत्र में शिक्षा क्षेत्र की तस्वीर धुंधली न दिखाई दे।