तकनीकी शिक्षा में श्रेष्ठता हासिल करने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने आईआईटी की स्थापना के साथ उसकी स्वायत्तता को सर्वोपरि रखा था, पर उनकी पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार इन शीर्ष संस्थानों की इस खासियत को ही खत्म करने पर आमादा है। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने, जो आईआईटी काउंसिल के चेयरमैन भी हैं, आईआईटी, एनआईटी और आईआईआईटी के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा आयोजित करने, इस परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी सीबीएसई को देने और बारहवीं के अंक को आधार बनाने के जो प्रावधान तय किए हैं, वे कुल मिलाकर आईआईटी पर सरकारी नियंत्रण की ही तसदीक करते हैं। जबकि आईआईटी की मौजूदा छवि उसकी स्वतंत्रता और स्वायत्तता के कारण ही बन पाई है। अपने गठन के बाद से ही ये संस्थान हर फैसला खुद लेते हैं, सरकार सिर्फ इनकी मदद करती रही है। सचाई यह है कि हर आईआईटी खुद प्रवेश परीक्षा न सिर्फ संचालित करती है, बल्कि इस प्रक्रिया में उच्च मानकों का भी पालन करती है। ऐसे में उससे यह जिम्मेदारी छीनकर सीबीएसई को देने का कोई औचित्य नहीं बनता। तब तो और नहीं, जब विगत में सीबीएसई द्वारा आयोजित एआईईईई परीक्षा के पेपर आउट हो चुके हैं। इसी तरह बारहवीं के अंक को आधार बनाने का औचित्य इसलिए नहीं है कि हर बोर्ड के मूल्यांकन की प्रक्रिया अलग-अलग है। यह उन राज्य बोर्डों के छात्रों के प्रति अन्याय होगा, जिन्हें दूसरे बोर्डों की तुलना में कम अंक मिलते हैं। जो आईआईटी संयुक्त प्रवेश परीक्षा का समर्थन कर रही हैं, वे भी इन दो प्रावधानों के पक्ष में नहीं हैं। सबसे खतरनाक बात यह कि आईआईटी पर एक तरह से दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है कि यदि उन्होंने काउंसिल के फैसले का विरोध किया, तो उनकी सरकारी मदद पर असर पड़ सकता है। यही नहीं, आईआईटी की सीनेट और इसके फैकल्टी फेडरेशन के विरोधों के बावजूद आईआईटी काउंसिल की सर्वोच्चता का हवाला दिया जा रहा है, जो उचित नहीं। क्या विडंबना है, जिस देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कोई गर्व करने वाली उपलब्धि नहीं है, जहां गणित या विज्ञान में शोध को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति नहीं है, वहां श्रेष्ठतम तकनीकी शिक्षा को भी सरकारी नियंत्रण के जरिये खत्म करने की सुनियोजित मंशा है।
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