अंबाला शहर में गलत सूचनाएं रोजगार कार्यालय में दर्ज करवा कर बेरोजगारी भत्ता लेने में भी फर्जीवाड़े का खुलासा होने पर विभाग में हड़कंप मचना स्वाभाविक है। गहराई से विचार किया जाए कि क्या यह फर्जीवाड़ा सिर्फ एक शहर तक ही सीमित है? क्या सभी जिलों में रोजगार कार्यालयों में ईमानदारी से केवल पात्र बेरोजगारों को ही भत्ता मिल रहा है? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या सरकार केवल उसी को बेरोजगार मानती है जिसे सरकारी नौकरी नहीं मिली और नाम रोजगार कार्यालय में दर्ज है। अगर वह निजी शोरूम, फैक्टरी या सर्विस स्टेशन चलाता है तो क्या विभाग द्वारा इसकी तहकीकात करवाई जाती है? यदि बेरोजगारी भत्ता लेने वाला व्यक्ति अपने किसी संबंधी के नाम से स्वयं व्यवसाय करता है क्या तब भी वह सरकारी मानदंडों पर बेरोजगारी भत्ता पाने का हकदार होगा? सर्वविदित है कि आज रोजगार कार्यालयों का कोई रुतबा नहीं। इस बेकद्री के लिए सरकार के अलावा किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। शुक्र है बेरोजगारी भत्ते के बहाने कुछ रौनक लग जाती है अन्यथा पांच साल का दौर ऐसा भी आया जब कोई रोजगार कार्यालय का रुख ही नहीं करता था। क्या रोजगार कार्यालयों की बेरोजगारों की नैया पार करवाने में कोई सार्थक भूमिका है? क्या सिर्फ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को रोजगार दिलाने और बेरोजगारी भत्ता बांटने तक ही भूमिका सीमित है? सरकार की रोजगार नीति दस साल में पांच बार बदली है। इस बदलाव ने रोजगार कार्यालयों की भूमिका को बेहद गौण कर दिया है। संकेत यही जा रहा है कि विभाग का कोई वारिस या संरक्षक नहीं इसलिए जो भी कार्य इसके पास है, उसमें अनियमितता रह जाए तो कोई जांच करने नहीं आएगा। संभवत: इसी कारण बेरोजगारी भत्ते में लगभग हर जिले से शिकायतें आ रही हैं। सरकार व प्रशासन की प्राथमिकताओं में शामिल न होने के कारण रोजगार कार्यालयों को वह सम्मान नहीं मिल पा रहा जो एक या डेढ़ दशक पूर्व था। प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय श्रेणी के 90 प्रतिशत पद सीधी भर्ती से भरे जा रहे हैं। रोजगार कार्यालयों से अब नाम नहीं मांगे जाते। इनके पास जो बचा-खुचा काम है, उसमें धांधली की शिकायत न आए, यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा। प्रदेश के हर जिले में बेरोजगारी भत्ता पाने वालों की वास्तविक पारिवारिक आर्थिक हैसियत की जांच हो जो उसने शपथपत्र में दिखाई है। बीपीएल जैसी धांधलियां न हों और न ही वास्तविक पात्रों का हक मारा जाए।
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