करोड़ों छात्रों को गणित कठिन लगता है और वे इसे स्कूल में ही छोड़ देते हैं। इसके लिए वे खुद को दोषी ठहराते हैं। राष्ट्रीय गणित वर्ष २०१२ में क्या उनके लिए कोई उम्मीद है?
हां है। अधिकांश छात्र अंकगणित तो सीख लेते हैं, लेकिन कठिनाई कलन (कैल्कुलस) से शुरू होती है। कलन सीखने में स्कूल और स्नातक स्तर पर 2-3 साल लग जाते हैं। इसकी पाठ्यपुस्तकें 1400 पृष्ठों तक की (डबल कॉलम और छोटे प्रिंट में) और कई किलो वजनी होती हैं, लेकिन कलन सीखने का एक आसान तरीका भी है।
कुछ दिन पहले तेहरान में मैंने सिर्फ पांच दिनों में मानविकी और इंजीनियरिंग के छात्रों को कलन सिखाया। उससे पहले मैंने आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में समाज शास्त्र के छात्रों को भी यही सिखाया। यह प्रयोग पहले भी छात्रों के पांच समूहों के साथ सारनाथ और पेनांग में हो चुका है और परिणाम शोध पत्रिकाओं में छप चुके हैं। छात्र खुश थे कि गणित के डर से छुटकारा मिला।
इस आसानी का राज क्या है? कुछ बॉलीवुड फिल्मों में दिखाया जाता है कि हीरो अपनी याददाश्त खो बैठा है। याददाश्त खोने या पाने से हीरो की समझ पूरी तरह बदल जाती है। इसी तरह गणित का इतिहास बदलने से हमारी समझ बदलती है। जब तक हम यह मानते रहे कि कलन न्यूटन और लाइबनिट्स से शुरू हुआ, पश्चिम की नकल करना स्वाभाविक था। आज हम जानते हैं कि कलन भारत में शुरू हुआ तो कलन की एक नई समझ सामने आई है। दोनों में फर्क यह है कि भारतवासियों के लिए गणित उपयोगिता का विषय था, जबकि पश्चिम में मैथमैटिक्स की धार्मिक समझ और कलन की उपयोगिता में सामंजस्य लाने में लगातार मुश्किलें आई हैं।
कलन का व्यावहारिक उपयोग भारत में धन के दो परंपरागत स्रोतों से जुड़ा है : कृषि और विदेशी व्यापार। भारतीय कृषि मानसून पर टिकी है। इसके लिए एक अच्छा कैलेंडर चाहिए, जो वर्षा के बारे में सटीक जानकारी दे सके और इसके लिए सही खगोलीय मॉडल चाहिए। विदेशी व्यापार के लिए नाविक शास्त्र की विश्वसनीय तकनीक आवश्यक है। दोनों के लिए सही त्रिकोणमितीय मान जरूरी थे। 5वीं शताब्दी में आर्यभट ने 5 दशमलव स्थानों तक सही त्रिकोणमितीय मान निकाले। इसके लिए आर्यभट ने क्रांतिकारी नवीनता से अंतर समीकरण हल किए, लेकिन सिर्फ उसी त्रैराशिक से, जो हम प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय में सीखते हैं। (त्रैराशिक से जुड़े सवाल याद होंगे : 'यदि 5 लोग एक काम 10 दिन में करते हैं तो 10 लोग इसे कितने दिन में करेंगे?') अगले हजार साल में केरल में आर्यभट के अनुयायियों ने अनंत श्रेढी के जरिए त्रिकोणमितीय मान 9 दशमलव स्थान तक सही निकाले।
अनंत श्रेढी की एक परिष्कृत समझ थी। इसे मैंने जीरोइज्म कहा है, क्योंकि यह बौद्ध शून्यवाद के समान है। व्यावहारिक पक्ष से अनंत श्रेढी सरल है। जैसे कि वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात को 3.1415 लिखते हैं। व्यवहार में जितनी परिशुद्धता चाहिए, उतने दशमलव स्थानों तक लिखते हैं, जैसे कि 3.14 या 3.14159 आदि। रॉकेट विज्ञान में 16 से भी अधिक दशमलव स्थानों की जरूरत पड़ती है। जीरोइज्म इस व्यावहारिक प्रक्रिया का दार्शनिक पक्ष है।
नेविगेशन के लिए कलन की उपयोगिता तो जेसुइट्स भी जानते थे। इसीलिए वे कलन को भारत से यूरोप ले गए। लेकिन मैथमैटिक्स से जुड़ी धार्मिकता की वजह से पश्चिमी विद्वानों को अनंत श्रेढी समझ में नहीं आई। यह धार्मिकता कोई अचरज की बात नहीं। मैथमैटिक्स शब्द की उत्पत्ति 'मैथेसिस' यानी 'सीखने' से होती है।
प्लेटो ने बताया कि सीखने का मतलब है आत्मा में शाश्वत सत्यों की याद जगाना। उसने कहा मैथमैटिक्स को आत्मा की भलाई के लिए पढ़ाना चाहिए, न कि उसके व्यावहारिक उपयोग के लिए। सुकरात ने एक गुलाम लड़के से मैथमैटिक्स के बारे में पूछताछ कर प्लेटो के इस सिद्धांत को दर्शाया। टीकाकार ने समझाया कि सुकरात ने मैथमैटिक्स का प्रयोग किया, किसी अन्य विषय का नहीं, क्योंकि मैथमैटिक्स में ही शाश्वत सत्य है, जो शाश्वत आत्मा को जगाता है।
आत्मा की इस धारणा को चर्च ने अंगीकार नहीं किया था। कई सदियों बाद क्रूसेड के दौरान चर्च ने मैथमैटिक्स को पुन: स्वीकारा, लेकिन मैथमैटिक्स की पुनव्र्याख्या की। उसे 'मैथेसिस' और आत्मा से अल कर महज तर्क पढ़ाने का एक उपकरण बनाया, अन्य धर्मावलंबियों से बहस करने के लिए। फिर भी, यह परंपरा जारी रही कि मैथमैटिक्स शाश्वत सत्य है। अब अगर अनंत श्रेढी का फल एक-एक पद जोड़कर निकाला जाए तो इसमें अनंत काल लग जाएगा, लेकिन देकार्ते ने सोचा कि अगर किसी पद पर रुके तो यह शाश्वत सत्य नहीं, अत: मैथमैटिक्स नहीं। उपरोक्त अनंत श्रेढी वृत्त की परिधि से जुड़ी थी, इसलिए उसने कहा कि वक्र रेखा की लंबाई मनुष्य के दिमाग से परे है, हालांकि भारत में बच्चों को सुतली से वक्र रेखा को नापना सिखाया जाता था! इस पश्चिमी मानसिकता की घुसपैठ ने ही मैथमैटिक्स को कठिन बना दिया है। यह गणित के व्यावहारिक अनुप्रयोगों में बाधा डालती है। न्यूटन की भौतिकी इसलिए विफल हुई, क्योंकि उसने कलन 'सही' तरह से करने की कोशिश की थी, लेकिन वह अलग कहानी है।
आज भी कलन के अनुप्रयोग अंतर समीकरणों से होते हैं। आर्यभट की तकनीक से आज भी उन्हें हल किया जा सकता है। यह संख्यात्मक तकनीक कंप्यूटर के लिए बहुत अनुकूल है। इस ऐतिहासिक मार्ग से सिखाने से कलन की शुरुआत अंतर समीकरण से होती है। हल के लिए त्रैराशिक काफी है। इससे कलन बहुत आसान हो जाता है और फोकस उसकी उपयोगिता पर रहता है।
हर साल गणित को 'ड्रॉप' करने वाले करोड़ों छात्र और उनके माता-पिता पाठ्यक्रम में हितधारक हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता। अधिकांश पाठ्यक्रम चंद पश्चिमी प्रशिक्षित 'विशेषज्ञों' द्वारा बंद दरवाजों के पीछे बनाए जाते हैं। गणित को आसान बनाने के लिए हमें 'शैक्षिक स्वराज' चाहिए, जो हमें इस अंधविश्वास से छुटकारा दिलाए कि पश्चिम की नकल ही आगे बढऩे का एकमात्र रास्ता है।
आर्यभट
का नाम महान भारतीय गणितज्ञों-खगोलविदों की शृंखला में अग्रगण्य माना गया है।
उनकी प्रमुख रचनाएं 'आर्यभटीय' और 'आर्य-सिद्धांत' हैं। 'आर्यभटीय' चार भागों में विभक्त है और उसमें १२१ श्लोक हैं।
हां है। अधिकांश छात्र अंकगणित तो सीख लेते हैं, लेकिन कठिनाई कलन (कैल्कुलस) से शुरू होती है। कलन सीखने में स्कूल और स्नातक स्तर पर 2-3 साल लग जाते हैं। इसकी पाठ्यपुस्तकें 1400 पृष्ठों तक की (डबल कॉलम और छोटे प्रिंट में) और कई किलो वजनी होती हैं, लेकिन कलन सीखने का एक आसान तरीका भी है।
कुछ दिन पहले तेहरान में मैंने सिर्फ पांच दिनों में मानविकी और इंजीनियरिंग के छात्रों को कलन सिखाया। उससे पहले मैंने आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में समाज शास्त्र के छात्रों को भी यही सिखाया। यह प्रयोग पहले भी छात्रों के पांच समूहों के साथ सारनाथ और पेनांग में हो चुका है और परिणाम शोध पत्रिकाओं में छप चुके हैं। छात्र खुश थे कि गणित के डर से छुटकारा मिला।
इस आसानी का राज क्या है? कुछ बॉलीवुड फिल्मों में दिखाया जाता है कि हीरो अपनी याददाश्त खो बैठा है। याददाश्त खोने या पाने से हीरो की समझ पूरी तरह बदल जाती है। इसी तरह गणित का इतिहास बदलने से हमारी समझ बदलती है। जब तक हम यह मानते रहे कि कलन न्यूटन और लाइबनिट्स से शुरू हुआ, पश्चिम की नकल करना स्वाभाविक था। आज हम जानते हैं कि कलन भारत में शुरू हुआ तो कलन की एक नई समझ सामने आई है। दोनों में फर्क यह है कि भारतवासियों के लिए गणित उपयोगिता का विषय था, जबकि पश्चिम में मैथमैटिक्स की धार्मिक समझ और कलन की उपयोगिता में सामंजस्य लाने में लगातार मुश्किलें आई हैं।
कलन का व्यावहारिक उपयोग भारत में धन के दो परंपरागत स्रोतों से जुड़ा है : कृषि और विदेशी व्यापार। भारतीय कृषि मानसून पर टिकी है। इसके लिए एक अच्छा कैलेंडर चाहिए, जो वर्षा के बारे में सटीक जानकारी दे सके और इसके लिए सही खगोलीय मॉडल चाहिए। विदेशी व्यापार के लिए नाविक शास्त्र की विश्वसनीय तकनीक आवश्यक है। दोनों के लिए सही त्रिकोणमितीय मान जरूरी थे। 5वीं शताब्दी में आर्यभट ने 5 दशमलव स्थानों तक सही त्रिकोणमितीय मान निकाले। इसके लिए आर्यभट ने क्रांतिकारी नवीनता से अंतर समीकरण हल किए, लेकिन सिर्फ उसी त्रैराशिक से, जो हम प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय में सीखते हैं। (त्रैराशिक से जुड़े सवाल याद होंगे : 'यदि 5 लोग एक काम 10 दिन में करते हैं तो 10 लोग इसे कितने दिन में करेंगे?') अगले हजार साल में केरल में आर्यभट के अनुयायियों ने अनंत श्रेढी के जरिए त्रिकोणमितीय मान 9 दशमलव स्थान तक सही निकाले।
अनंत श्रेढी की एक परिष्कृत समझ थी। इसे मैंने जीरोइज्म कहा है, क्योंकि यह बौद्ध शून्यवाद के समान है। व्यावहारिक पक्ष से अनंत श्रेढी सरल है। जैसे कि वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात को 3.1415 लिखते हैं। व्यवहार में जितनी परिशुद्धता चाहिए, उतने दशमलव स्थानों तक लिखते हैं, जैसे कि 3.14 या 3.14159 आदि। रॉकेट विज्ञान में 16 से भी अधिक दशमलव स्थानों की जरूरत पड़ती है। जीरोइज्म इस व्यावहारिक प्रक्रिया का दार्शनिक पक्ष है।
नेविगेशन के लिए कलन की उपयोगिता तो जेसुइट्स भी जानते थे। इसीलिए वे कलन को भारत से यूरोप ले गए। लेकिन मैथमैटिक्स से जुड़ी धार्मिकता की वजह से पश्चिमी विद्वानों को अनंत श्रेढी समझ में नहीं आई। यह धार्मिकता कोई अचरज की बात नहीं। मैथमैटिक्स शब्द की उत्पत्ति 'मैथेसिस' यानी 'सीखने' से होती है।
प्लेटो ने बताया कि सीखने का मतलब है आत्मा में शाश्वत सत्यों की याद जगाना। उसने कहा मैथमैटिक्स को आत्मा की भलाई के लिए पढ़ाना चाहिए, न कि उसके व्यावहारिक उपयोग के लिए। सुकरात ने एक गुलाम लड़के से मैथमैटिक्स के बारे में पूछताछ कर प्लेटो के इस सिद्धांत को दर्शाया। टीकाकार ने समझाया कि सुकरात ने मैथमैटिक्स का प्रयोग किया, किसी अन्य विषय का नहीं, क्योंकि मैथमैटिक्स में ही शाश्वत सत्य है, जो शाश्वत आत्मा को जगाता है।
आत्मा की इस धारणा को चर्च ने अंगीकार नहीं किया था। कई सदियों बाद क्रूसेड के दौरान चर्च ने मैथमैटिक्स को पुन: स्वीकारा, लेकिन मैथमैटिक्स की पुनव्र्याख्या की। उसे 'मैथेसिस' और आत्मा से अल कर महज तर्क पढ़ाने का एक उपकरण बनाया, अन्य धर्मावलंबियों से बहस करने के लिए। फिर भी, यह परंपरा जारी रही कि मैथमैटिक्स शाश्वत सत्य है। अब अगर अनंत श्रेढी का फल एक-एक पद जोड़कर निकाला जाए तो इसमें अनंत काल लग जाएगा, लेकिन देकार्ते ने सोचा कि अगर किसी पद पर रुके तो यह शाश्वत सत्य नहीं, अत: मैथमैटिक्स नहीं। उपरोक्त अनंत श्रेढी वृत्त की परिधि से जुड़ी थी, इसलिए उसने कहा कि वक्र रेखा की लंबाई मनुष्य के दिमाग से परे है, हालांकि भारत में बच्चों को सुतली से वक्र रेखा को नापना सिखाया जाता था! इस पश्चिमी मानसिकता की घुसपैठ ने ही मैथमैटिक्स को कठिन बना दिया है। यह गणित के व्यावहारिक अनुप्रयोगों में बाधा डालती है। न्यूटन की भौतिकी इसलिए विफल हुई, क्योंकि उसने कलन 'सही' तरह से करने की कोशिश की थी, लेकिन वह अलग कहानी है।
आज भी कलन के अनुप्रयोग अंतर समीकरणों से होते हैं। आर्यभट की तकनीक से आज भी उन्हें हल किया जा सकता है। यह संख्यात्मक तकनीक कंप्यूटर के लिए बहुत अनुकूल है। इस ऐतिहासिक मार्ग से सिखाने से कलन की शुरुआत अंतर समीकरण से होती है। हल के लिए त्रैराशिक काफी है। इससे कलन बहुत आसान हो जाता है और फोकस उसकी उपयोगिता पर रहता है।
हर साल गणित को 'ड्रॉप' करने वाले करोड़ों छात्र और उनके माता-पिता पाठ्यक्रम में हितधारक हैं, लेकिन उनकी कोई नहीं सुनता। अधिकांश पाठ्यक्रम चंद पश्चिमी प्रशिक्षित 'विशेषज्ञों' द्वारा बंद दरवाजों के पीछे बनाए जाते हैं। गणित को आसान बनाने के लिए हमें 'शैक्षिक स्वराज' चाहिए, जो हमें इस अंधविश्वास से छुटकारा दिलाए कि पश्चिम की नकल ही आगे बढऩे का एकमात्र रास्ता है।
आर्यभट
का नाम महान भारतीय गणितज्ञों-खगोलविदों की शृंखला में अग्रगण्य माना गया है।
उनकी प्रमुख रचनाएं 'आर्यभटीय' और 'आर्य-सिद्धांत' हैं। 'आर्यभटीय' चार भागों में विभक्त है और उसमें १२१ श्लोक हैं।